हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार, क्या निज़ाम-ए-इमामत अर्थात इमाम का सिस्टम ग़ैबत-ए-सुग़रा के समाप्त होने और ग़ैबत-ए-कुबरा के शुरू होने के साथ समाप्त हो गया था, और क्या हज़रत इमाम महदी (अलैहिस्साम) के ज़ुहूर के बाद यह सिस्टम फिर से स्थापित होगा, या यह सिस्टम लगातार जारी है?
इमामत का सिस्टम अल्लाह का सिस्टम का बनाया हुआ सिस्टम है, जो कभी खत्म नहीं होता और इसमें कोई रुकावट या खाली समय नहीं आता। हर समय और हर युग में यह सिस्टम मौजूद रहा है; पैगम्बर (स) के समय से लेकर अब तक यह बना हुआ है और आगे भी जब तक दुनिया है, बना रहेगा। जैसा कि हज़रत अली (अ.स.) ने भी फरमाया है।
لَا تَخْلُو الْأَرْضُ مِنْ قائِم لِلهِ بِحُجَّهٍ؛ إِمَّا ظَاهِراً مَشْهُوراً، أَوْ خَائِفاً مَغْمُوراً، لِئَلَّا تَبْطُلَ حُجَجُ اللهِ وَبَیِّناتُهُ ला तख़्लुल अर्ज़ो मिन क़ायमे लिल्लाहे बेहुज्जतिन, इम्मा ज़ाहेरन मशहूरन, औ ख़ाएफ़न मग़मूरन, लेअल्ला तब्तोला होजजुल्लाहे व बय्येनातोहू
धरती कभी भी ऐसे इंसान से खाली नहीं रहती जो अल्लाह की तरफ से उसकी हुज्जत हो। यह हुज्जत कभी खुलकर सामने होती है, और कभी हालात के डर से छुपी रहती है। ऐसा इसलिए है ताकि अल्लाह की हुज्जत और उसके साफ़-साफ़ प्रमाण कभी खत्म न हों। (नहजुल बलाग़ा, हिकमत 147)
हर इंसान पर ज़रूरी है कि वह "इमामत के सिस्टम" निज़ाम-ए-इमामत को पहचाने और उस पर ईमान रखे। हर समय और हर जगह, लोगों को सिर्फ इसी सिस्टम का पालन करना चाहिए।
हर किसी को यह तय करना चाहिए कि वह अपनी ज़िंदगी और हर मामले में किस सिस्टम का पालन करता है, और किस हुकूमत के अधीन है। उसे यह साफ़ करना चाहिए कि वह अल्लाह की हुकूमत को मानता है या तागूत (झूठी सत्ता) की हुकूमत को। यानी, वह अल्लाह पर ईमान रखता है या तागूत पर।
अफसोस की बात है कि ज़्यादातर मुसलमान इस बहुत अहम मुद्दे पर ध्यान नहीं देते, "विलायत" का सही मतलब नहीं समझते, और इसके सबसे अहम पहलू — यानी पूरी तरह से आज्ञा पालन — को नज़रअंदाज़ कर देते हैं। जो लोग बहुत धार्मिक और जिम्मेदार भी हैं, वे भी अक्सर सिर्फ कुछ फर्ज़ और वाजिब कामों को करने और हराम चीज़ों से बचने को ही काफी समझते हैं।
शिया मत के अनुसार, इमामत का सिस्टम हमेशा जारी और स्थायी रहता है। हर हाल में, शरई हुकूमत का पालन करना एक जरूरी फर्ज़ है।
- हुकूमत सिर्फ अल्लाह के लिए है:
إِنِ الْحُکْمُ إِلَّا لِلّٰهِ इनिल हुक्मो इल्ला लिल्लाह
सिर्फ अल्लाह की इबादत और आज्ञापालन करना चाहिए, और आज्ञा पालन पूरी तरह उसी के लिए होना चाहिए। लोगों को उसकी हुकूमत, बादशाहत और शासन के सामने झुकना और आज्ञा मानना चाहिए:
أَمَرَ أَلَّا تَعْبُدُوا إِلَّا إِیَّاهُ مُخْلِصِینَ لَهُ الدِّینَ अमरा अल्ला तअबोदू इल्ला इय्याहो मुख़्लेसीना लहुद दीना
उसने हुक्म दिया है कि सिर्फ उसी की इबादत करो, और धर्म को उसी के लिए खालिस रखो
- सीधा और सही धर्म यही है:
ذَلِکَ الدِّینُ الْقَیِّمُ ज़ालेका दीनुल क़य्यमे
यही सीधा धर्म है (सूर ए यूसुफ, आयत 40)
इमामत के सिस्टम का मतलब है – अल्लाह की हुकूमत। इसका पालन करना, अल्लाह के हुक्म को मानना और उसकी हुकूमत के दायरे में रहना है। इसका मतलब यह भी है कि किसी और की हुकूमत को सही न मानना।
इसलिए, इसमें कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह जमाना था जब इमाम (अ) खुद मौजूद थे लेकिन हुकूमत पर क़ब्ज़ा करने वालों ने उन्हें सरकारी मामलों से दूर रखा, या आज का दौर है जब इमाम (अ) पर्दे में गायब हैं; हर मुसलमान को सिर्फ इमामत के सिस्टम का ही पालन करना चाहिए।
क्योंकि इमामत पर विश्वास रखना, असल में तौहीद और उसकी हुकूमत को मानने का हिस्सा है। इसी वजह से, जो भी अपनी जिंदगी में अपने समय के इमाम को न पहचाने, वह जाहिलियत की मौत मरता है। जैसा कि पैग़म्बर (स) ने फरमाया:
مَنْ مَاتَ وَلَمْ یَعْرِفْ إِمَامَ زَمَانِهِ مَاتَ میْتَهً جَاهِلِیَّهً मन माता व लम यअरिफ़ इमामा ज़मानेहि माता मीततन जाहेलिय्या
जो व्यक्ति अपने जमाने के इमाम को पहचाने बिना मर जाए वह जाहिलियत की मौत मरा (बिहार उल अनवार, भाग 32, पेज 321)
और क्योंकि दूसरे सिस्टम की आज्ञा मानना, एक तरह का शिर्क (अल्लाह के साथ किसी और को साझी ठहराना) है, इसलिए इमाम जाफर सादिक़ (अ) ने एक हदीस में फ़रमाया:
لَا دِینَ لِمَنْ دَانَ اللهَ بِوِلایَهِ إِمَامٍ جَائِرٍ لَیْسَ مِنَ اللهِ ला दीना लेमन दानल्लाहा बेविलायते इमामिन जाएरिन लैसा मिनल्लाहे
जो कोई अल्लाह की इबादत ऐसे जालिम इमाम (नेता) की पैरवी करते हुए करे, जो अल्लाह की तरफ़ से नहीं है, उसकी कोई दीनदारी (धर्म) नहीं है (काफी, भाग 1, पेज 375)
इन हदीसों से यह समझ में आता है कि इमामत (नेतृत्व) का सिस्टम सीमित नहीं है, बल्कि हमेशा के लिए है और यह केवल किसी एक समय तक सीमित नहीं है। यह व्यवस्था हर दौर में जारी रहती है और कभी भी बंद नहीं हुई और न ही होगी।
श्रृंखला जारी है ---
इक़्तेबास : आयतुल्लाह साफ़ी गुलपाएगानी द्वारा लिखित किताब "पासुख दह पुरशिसे पैरामून इमामत " से (मामूली परिवर्तन के साथ)
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